अन्तकृद्दशांग सूत्र का भाषा-वैज्ञानिक विश्लेषण
अन्तकृद्दशांग सूत्र का भाषा-वैज्ञानिक विश्लेषण - Paperback is backordered and will ship as soon as it is back in stock.
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Pages : 625
Edition : 1st
Size : 7.25" x 9.5"
Condition : New
Language : Hindi
Weight : 1.5-2.0 kg
Publication Year: 2025
Country of Origin : India
Territorial Rights : Worldwide
Reading Age : 13 years and up
HSN Code : 49011010 (Printed Books)
Publisher : Motilal Banarsidass Publishing House
प्राकृतिक सम्पदा से समृद्ध झारखण्ड के सिमडेगा शहर के साथ सटे हुए टुकुपानी क्षेत्र में निर्मित तीन मंजिला भवन जो कि राष्ट्रीय राजमार्ग 143 अर्थात रांची-राउरकेला मार्ग पर अवस्थित है इस गुरुकुल भवन में ज्योतिष विद्या के प्रशिक्षण, जन्म कुण्डली आलेखन, ज्योतिषीय समाधान प्रदान करने के साथ-साथ विद्यार्थियों को धर्म और नैतिकता के संस्कार भी प्रदान किए जाते हैं। समय-समय पर शिविरों का आयोजन करके मजबूत भविष्य के लिए वर्तमान की नई पौध को सींचा जाता है। यह सब कार्य स्वयं आचार्य जी के द्वारा अथवा उनके मार्गदर्शन में गुरुमा एवं गुरुकुल परिवार के द्वारा किया जाता है। गुरुकुल में संचालित गतिविधियों की अधिक जानकारी के लिए हमारे यू-ट्यूब चैनल सर्वधर्म-समन्वय (SARVADHARMA SAMANVAY) में पधारें और कुछ पलों का अर्घ्य चढाएं।
लेखक के बारे में:
वर्तमान में उपलब्ध आगमों की अर्धमागधी भाषा में माहाराष्ट्री प्राकृत का प्रभाव स्पष्टतः परिलक्षित होता है। इसके कई कारण रहे हैं। एक तो मुनि सम्मेलनों का पूर्वोत्तर भारत से पश्चिम भारत की ओर अग्रसारित हो जाना। दूसरा अर्धमागधी के सभी लक्षणों का समुचित ढंग से वर्णन न किए जाने के कारण उन्हें माहाराष्ट्री प्राकृत में ढाला जाना। तीसरा प्राकृत के वैयाकरणों के द्वारा अर्धमागधी के लक्षणों का स्पष्ट रूप से उल्लेख करने हेतु अलग अध्याय की व्यवस्था का न किया जाना। आगम - सम्पादकों ने इन बातों को स्वीकार भी किया है जैसे-चूर्णि की भाषा में 'त' और 'ध' की उपस्थिति लोप या परिवर्तन से अधिक है। जैसे इत्थितो, रेवतते, पव्वते, सतणाणि आदि। 'त' का लोप न होना, 'ध' को 'ह' न किया जाना यह बताता है कि ये प्रयोग निश्चित ही प्राचीन प्रयोग हैं। किन्तु जो लोग 'प्राकृत व्याकरण' की सीमा में घिरे हुए हैं उनके लिए ये प्रयोग प्राचीन होते हुए भी अपरिचित हो गए हैं। सवाल यह है कि जिस पात्र के सम्बंध मे कहा जा रहा है कि उसने ग्यारह अंगों का अध्ययन किया, वह स्वयं इस अष्टम् अंग सूत्र के एक अध्याय का अधिकारी है, जैसे अनीकसेन, गौतम, अर्जुन आदि। फिर भला उसने ग्यारह अंग सूत्र कैसे पढ़े? क्या उसने स्वयं का अध्याय पढ़ा? अष्टम अंग सूत्र में 22 वें तीर्थकर अरिष्टनेमिनाथ जी एवं 24 वें तीर्थंकर भगवान महावीर स्वामी जी के शासनवर्ती साधक-साधिकाओं का वर्णन है। प्रथम पाँच वर्ग अरिष्टनेमि कालीन साधकों के और अंतिम तीन वर्ग भगवान महावीर कालीन साधकों के हैं। दोनों के मध्य में हजारों वर्षों का अन्तराल है। ऐसे में यह कैसे सम्भव है कि अरिष्टनेमि कालीन साधकों ने भ० महावीर कालीन साधकों का चरित्र पढ़ा? जो अभी पैदा ही नहीं हुआ उसका चरित्र भला कैसे पढ़ा जा सकता है? ऐसे में उनके द्वारा ग्यारह अंग पढ़ने का सत्य क्या है?